बीती रात की चादर में सिकुड़ी सुबह आयी है
या चाँद की चांदनी सूरज में समायी है
परिंदो का कोलाहल तो सुनाई देता है मगर
चौके से चाय की खुशबू अभी तक नहीं आयी है
सोचां ज़रा उठके देखूं वक़्त क्या हुआ है मगर
शायद थोड़ी सुस्ती अभी भी छायी है
वक़्त अभी बचा ही होगा, लम्हा दो लम्हा और सो लूँ
माँ की पायल की आवाज भी तो अभी नहीं आयी है
तभी जहन को ये ख्याल आया
बहुत दिन हुए अब तो उस सुबह को होये
न तो अब वो सुबह है ना ही वो रात
न वो परिंदो का कोलाहल है
न वो चाय की खुशबू वाली बात
माँ तो वैसे भी मीलों दूर हैं
तो उसके पायल की कोनसी आवाज
चलो वक़्त पुराना याद तो आया
इसी तरह हमने अपने मन को समझाया
मन का क्या वो तो यूँही भटकता है
पर जिंदगी समझदार है, वो
उम्र को ज़ीने से होते हुए
मुझे छत पे जरूर ले आयी है
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